रेशम कीट पालन क्या है। रेशम कीट पालन पर निबंध। Sericulture

रेशन कीट पालन क्या है?

व्यापारिक उद्देश्य से रेशम को प्राप्त करने के लिये वैज्ञानिक विधि से रेशम कीटों का पालन रेशम कीट पालन कहलाता है। रेशम लेपिडोप्टेरा के मोथ के लार्वा द्वारा स्त्रावित प्रोटीन होता है यह लार्वा के रेशम की ग्रन्थियों से निकाला जाता है। रेशम के धागे पूरे शरीर के चारों ओर बुन दिया जाता है। ये धागे हवा लगने के बाद सूखकर कड़े हो जाते है व कोकून बनाते है। ये धागे 300 मी. तक लम्बे होते है।

रेशम कीट पालन। रेशम कीट पालन पर निबंध। Sericulture
                                         रेशन कीट पालन

विभिन्न प्रकार के रेशम कीट (Kinds of sild worms)- शहतूत के रेशम कीट (Bomyx mori) के अतिरिक्त ओर भी निम्नलिखित रेशम कीट की जातियाँ हैं।

(1) टूसर रेशम कीट (Antheraea paphia mylitta L.)- यह बंगाल, आसाम तथा उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले के जंगलों में या जाता है जो कि साल, बेर, गुलर तथा पाखर आदि की पत्तियाँ खाता है। 

यह अर्धपालित कीट है। इसकी सूंडी हल्का भूरा अथवा पीला कोया (cocoon) बनाती है जो कि वृक्षों पर डण्ठल द्वारा लटका रहता है। इसका पूरा धागा उधेड़ कर लपेट दिया जाता है जिससे अच्छे प्रकार का रेशम प्राप्त होता है। टसर रेशम कीट की एक अन्य जाति (Antheraea proylei) हिमालय के तराई भागों में (oak) पौधे पर जाती है। इस जाति का कोया सफेद रंग का और सख्त होता है।

(2) एरी रेशम कीट (Philosamia ricini B.) यह मुख्य रूप से आसाम के जंगलों में पाया जाता था परन्तु अब बंगाल, बिहार, उड़ीसा और मद्रास में भी पाया जाता है। इसकी सूंडी, अंरड (Ricinus communis) की पत्तियाँ खाती हैं। इससे प्राप्त होने वाले रेशम ईंट जैसे लाल रंग का अथवा सफेद होता है। इस रेशम में सबसे अधिक कठिनाई यह है कि इसे पूरे धागे के रूप में नहीं अधेड़ा जा सकता है बल्कि यह छोटे-छोटे टुकड़ों के रूप में निकलता है। इसे साफ करके काता जाता है । अतः यह घटिया किस्म का होता है। यह कीट भी पाला जाता है।

(3) मूँगा रेशम कीट (Antheraea assamensis H.) यह कीट बिहार, पश्चिमी बंगाल, उड़ीसा तथा आसाम में पाया जात है। यह अर्धपालित कीट होता है। इसके कोये का रंग दूधिया अथवा पीले गुलाबी रंग का होता है। इससे निकलने वाले रेशम को मूँगा कहते है। 

(4) देव मूँगा कीट (Thiopailo relifiosa H.)- यह उत्तर प्रदेश और हिमालय के तराई क्षेत्रों में मिलता है। इसकी सूंडी मैचिलिस और फाइकस (ficus) पौधों की पत्तियाँ खाती हैं। इससे प्राप्त होने वाला धागा काफी मजबूत, खुरदरा और मीठा होता है अतः अधिकतर प्रयोग मछली पकड़ने वाले जाल बनाने में किया जाता है।

(5) शहतूत का रेशम कीट (Bombyx mori L.) यही रेशम का कीट हमारे देश में अधिकतर पाला जाता है। इसके कोये का रंग सफेद होता है तथा इससे मिलने वाला रेशम उत्तम किस्म का होता है।

जीवन इतिहास - रेशम का कीट एक शलभ moth है जो लगभग 30 मिमी. लम्बा तथा पंख विस्तार 40 से 50 मिमी. एवं इसका रंग पीताभी श्वेत (creamy white) होता है। नर मादा की अपेक्षा छोटा होता है। सिर छोटा, एक जोड़ी गोल, काले संयुक्त नेत्र तथा द्विकंघाकार (bipectnate) ऐण्टिनी होते है। मुखांग अक्रियाशील होते हैं फलतः प्रौढ़ कुछ खाते नहीं तथा 2-7 दिन ही जिवित रहते हैं। पंखो पर तिरछी सिरायें होती हैं तथा उदर 8 से 9 खंडों का एवं मोटा होता है। प्रौढ़ का सारा शरीर रोमों से ढका होता है। 

नर तथा मादा कीट उदर की नोक से नोक सटाकर विपरीत दिशाओं की ओर मुँह करके मैथुन करते हैं तथा निषेचन (fertilization) मादा के अन्दर होता है। इसमें पूर्ण रूप (complete) चिपकाकर समूह में दिये जाते हैं। मादा एक बार में लगभग 300-400 अण्डे देती है। प्रत्येक अण्डा चपटा गोलाकार सफेद रंग का होता है जो पकने पर भूरे-काले रंग का हो जाता है। 

अण्डे फूटने का समय गर्मियों में 10-12 दिन तथा सर्दियों में फूटते ही नहीं तथा इसी में शीतनिष्क्रियता करते हैं अतः इनकी प्रतिवर्ष एक ही पीढ़ी पायी जाती है ऐसी जातियों को एकलभ्रूणीय जाति (univoltine race) कहते हैं। 

इस प्रकार की जातियाँ विदेशों में व ठण्डे देशों में पाई जाति हैं जहाँ वर्ष में अधिकतर सर्दी रहती है। हमारे देश में इसकी बहुभ्रूणीय (multi-voltine) जातियाँ ही मिलती है जिनकी वर्ष में 2 से 7 पीढ़ियाँ होती है। 

सूंडी- अंडे से निकलने वाली सूंडी लगभग 3 मिमी. लम्बी, स्लेटी रंग की होती है। इसके मुखांग काटने-चबाने वाले होते हैं। वक्ष में 3 टाँगे तथा उदर 5 जोड़ी टाँगें जो क्रमश: 3, 4, 5, 6 और दसतें खण्ड पर स्थित होती हैं। उदर में आठवें खण्ड पर पृष्ठीय सतह पर एक छोटा शृंगीय (horny) उपांग, जो पीछे की ओर मुड़ा होता है इसे पृष्ठीय शुक्र (dorsal spine) कहते हैं। 

सूंडी अण्डे से निकलने के पश्चात् शहतूत की पत्तियाँ खाना आरम्भ कर देती है तथा 4-5 दिन के बाद शिथिल होकर प्रथम निर्मोक करती है। इस प्रकार इसमें चार बार त्वचा निर्मोचन होता है और पूर्ण विकसित सूंडी लगभग 75 मिमी. लम्बी होती है। इसकी लार ग्रन्थियाँ अत्यधिक विकसित होती है। सूंडी का जीवनकाल प्रायः 30-35 का होता है परन्तु ठण्ड में कई महीने लग जाते है। ऐसा अनुमानर लगाया गया है कि यह अपने वजन की 30,000 गुना पत्तियाँ खा लेती है।

कृमिकोष- इसका कोया 38 मिमी. लम्बा तथा 19 मिमी. चौड़ा अण्डाकार सफेद अथवा पीले रंग का होता है इसी के अन्दर सूंडी कोषावस्था में बदलती है। कोया एक ही धागे का बना होता है। यह 15 मिमी धागा प्रति मिनट के हिसाब से बुनती है। इस प्रकार 3-4 दिनों में यह लगभग 1 हजार मीटर लम्बा धागा बुनती है।

कृमिकोष लगभग 2.5 सेमी. लम्बा, 7 सेमी, चौड़ा लाल भूरे रंग का होता है। कोषावस्था 10 से 15 दिन की होती है। कृमिकोष से जब प्रौढ़ बनता है तो वह बाहर निकलने के लिये अपने मुख से एक क्षारीय (alkaline) द्रव निकालता है, जिससे कोये का अगला भाग गल जाता है और उसमें एक छेद हो जाता है जिससे प्रोढ़ कीट बाहर निकलता है। इससे कोये का धागा कट जाता है। 


रेशम उद्योग को मुख्यतः तीन भागों में विभिक्त कर सकते हैं।

(1) शहतूत की खेती (sericulture)

(2) कीट पालन तथा कोया उत्पादन (cocoon production)

(3) धागाकरण (Threading)


शहतूत की खेती- शहतूत कीट का मुख्य भोजन की पत्तियाँ होती है अतः पत्तियाँ जितनी अधिक पौष्टिक और प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होगी कीट उतना ही अच्छा कोया बनायेगा फलस्वरूप उत्पादन बढ़ने के साथ साथ अच्छी गुणवत्ता वाला रेशम प्राप्त होगा। पर्याप्त मात्रा में पत्तियाँ प्राप्त करने के लिए शहतूत उत्पादन नितान्त आवश्यक है।

शहतूत की खेती बहुई दोमट भूमि में आसानी से की जा सकती है। शहतूत की लगभग 20 जातियाँ हैं परन्तु उनमें से 4 जातियाँ (Morus alba, Morus indica, Morus serrata और Morus latifolia) रेशम कीट पालन के लिए उपयुक्त पायी जाती गयी है। 

Mindica जाती अधिक प्रचिलित है क्योंकि यह शीघ्र बढ़ने वाली, वर्ष भर पत्तियाँ देने वाली तथा सभी जगह आसानी से उगायी जा सकती है। इस क्रम में केन्द्रीय रेशम बोर्ड ने अधिक उत्पादन देने वाली इस जाति की कई - किस्में विकसित की है जैसे- Kanua 25-30, 554 दक्षिण भारत के लिए अधिक उपयुक्त है तथा 5-162, 5-519 एवं 5-663 उत्तरी भारत के लिए अच्छी पायी गयी है।


शहतूत का संवर्धन (propagation) बीज, root grafts तथा stem cutting द्वारा किया जाता है, इनमें से stem cutting सबसे अच्छा हैं। उंगली के समान मोटाई वाली लगभग 20 से 25 सेमी. लम्बी 3-4 कलियों से युक्त शाखाएँ पेड़ से प्राप्त कर सीधे खेत अथवा नर्सरी में लगाते हैं। 

पत्तिया  नम टाट के बोरों में एकत्रित ही उनके गुण तथा पानी की मात्रा में परिवर्तन होने लगता है अतः पत्तियों को नम टाट के बोरों में एकत्रित करना चाहिए। पत्तियों को समय-समय पर उलटते-पलटते रहना चाहिए जिससे उनकी ताजगी और पौष्टिकता बनी रहे। खराब, सड़ी-गली टूटी पत्तियों को अलग कर देना चाहिए। कीटों को भीगी पत्तियाँ खाने के लिए नहीं देना चाहिए।


कीट पालन तथा कोया उत्पादन- रेशम कीट के अण्डों को बीज तथा पीढ़ी (generation ) को crop करते हैं। कीट पालन में बीज का विशेष महत्व है, अतः किसी विश्वसनीय संस्था से ही लेना चाहिए। बीज उपलब्ध कराने वालें केन्द्रों को ग्रेनेज (grainage) कहते हैं। 

केन्द्रों से प्राप्त बीज का पालन पोषण किया जाता है जिसे अण्डों को सेना (hatching) कहते हैं। बीजों को पालन पोषण के लिए ट्रे (rearing tray) में एक कागज पर फैलाकर रखते हैं अंडों के ऊपर जालीदार कपड़ा रख देते हैं तथा जब सूंडियाँ निकलने लगें तो ट्रे पर कुछ शहतूत बारीक कटी पत्तियाँ रख देना चाहिए। सूंडियाँ जालीदार कपड़े के छिद्रों से होकर बाहर आ जाती हैं। 

अण्डों से निकली सूंडियों को दूसरे ट्रे में इकट्टा कर लेते हैं तथा उनको शहतूत की पत्तियाँ भोजन के रूप में देते हैं। सूंडी की पहली तथा दूसरी अवस्था को कोमल कटी हुई छोटी-छोटी पत्तियाँ दी जाती है ।

जब सूंडियाँ परिपक्व हो जाती है तथा रेशम का धागा निकालने लगती हैं तो उन्हें ट्रे से हटाकर कोयों की टोकरी (cocoonae) में रखते हैं जहाँ पर ये कोया बनाती हैं। रेशम के कीट प्रायः 4 दिन में कोया बना लेते हैं। 

कोये की टोकरी में अधिक कीट नहीं रखना चाहिए क्योंकि ऐसी अवस्था में दो काये आपस में उलझ जाते हैं। उलझे कोयों को ड्यूपियन्स (Dupions) कहते हैं इनसे धागा नहीं निकल पाता।


कोये को चुनना और मारना (Harvesting and stifing of cocoon)- पूर्ण रूप से तैयार हो गये कोयों को कोये की टोकरी से अलग करना ही कोयों कट जाता है ऐसे कोयों को pierced cocoon कहते हैं इनसे धागा टुकड़ों में निकलता है। उच्च कोटि का रेशम प्राप्त करने के लिए कोयें (cocoon) बनने के लगभग दस दिन पश्चात् गर्म पानी में उबालते है या भाप से सेकते है ताकि उनके अन्दर विकसित हो रहें प्रौढ़ कीट मर जायें इस क्रिया को स्टिफिंग (stiffing) कहते है।

कोये का छॉटना- गर्म पानी में कृमिकोष को मारने के पश्चात् कोये को उनके रंग एवं चमक के आधार पर अलग-अलग छाँट लिया जाता है।


रेशम के धागों को उधेड़ना तथा साफ करना- उबालने के पश्चात कोया मुलायम पड़ जाता है तथा उसके धागों के पर्त ढीले हो जाते हैं जिससे उन्हें उधेड़ने में सुविधा रहती है। चार या पाँच कोयों के धागों के बारही छोरों को मिलाकर एक विशेष प्रकार के लकड़ी के नि छिद्रों से गुजारते है जिन्हें आइलेट (eyelet) या गोइड (guide) कहते हैं। 

इस छिद्र का सम्बन्ध एक चक्र से होता है। इस प्रकार एक साथ चार पाँच धागे इस चक्र पर लिपट जाते हैं। इन्ही धागों को फिर दूसरी एक चर्खी पर लपेटते हैं इसे कच्ची रेशम (raw-silk) कहते हैं। 

कच्चे रेशम से ऐंठा हुआ रेशम (spun silk) बनाने के लिये इन धागों को पुनः पानी में उबालते हैं तथा रसायनिक अम्लों के घोलों से धोकर अच्छी तरफ के से साफ कर लेते हैं इससे रेशम के धागों में काफी चमक आ जाती है। कई धागों को ऐंठकर रेशम के पक्के धागे बना लेते हैं इसे फाइबर सिल्क (fibre-silk ) कहते हैं।


रेखम उद्योग की आवश्यक सामग्रियाँ 

(1) तिपाइयाँ- ये लकड़ी या बाँस की होती है।

(2) लकड़ी की छिछली तश्तरियाँ (trays) |

(3) जाल (Nets)- ये कपड़े के छोटे-छोटे जाल होते हैं इनकी घू सहायता से बची हुई पत्तियों तथा कीड़ों के माल को साफ करते हैं।

(4) पत्तियाँ काटने वाले चाकू 

(5) आर्दता मापी (Hygrometer) 

(6) ऊष्मा उत्पादन एवं कूलर (Heater 

(7) कोया की टोकरी (Cocoonage) 

(8) थर्मामीटर।

(9) पैराफिन पेपर


रेशम का रासायनिक संगठन

रेशमी धागों का अधिकांश भाग (75%) बड़े अघुलशील व प्रोटीन का बना होता है। सिरसिन नामक पदार्थ इन धागों को जोड़े रहता है शेष भाग 25% भार जिलेटिनी प्रोटीन का बना होता है यह गर्म जल में घुलनशील होता है। इसमें कुछ मात्रा में केरोटिनॉइड वर्णक व मोम भी पाया जाता है।


Note - इस लेख को त्रुटी रहित रखने का पूर्ण प्रयास किया गया है, परंतु फिर भी कुछ त्रुटीयां हो सकती है।


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