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तंत्रिका उत्तक या तंत्रिका

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तंत्रिका उत्तक या तंत्रिका- तंत्रिका तंत्र की संरचनात्मक एवं क्रियात्मक इकाई तंत्रिका या न्यूरॉन कहलाती  है। तंत्रिका की संरचना- कोशिकाय कोशिका का प्रमुख भाग होता है ,इसमें कोशिका द्रव्य वे केंद्रक पाया जाता है ,केंद्रक में केंद्रिका स्पष्ट होती है। कोशिका द्रव्य में निस्सल कणिकाएं एवं न्यूरोफाइब्रिल्स नामक तन्तु पाए जाते हैं। कोशिकाय अथवा सोमा से दो प्रकार के प्रवर्ध निकलते हैं जिन्हे -द्रुमिकाएँ एवं तंत्रिकाक्ष या एग्जॉन कहते हैं। द्रुमिकाएँ यह छोटे शाखित प्रर्वध होते हैं इनसे संदेश सोमा की ओर जाता है । तंत्रिकाक्ष यह बड़ा प्रर्वध होता है जो सोमा से निकलता है ,सोमा से संदेश तंत्रिकाक्ष द्वारा आगे जाता है। तंत्रिकाक्ष का अधिकांश भाग श्वेत मोटे आवरण द्वारा घिरा होता है जिसे मज्जा आच्छाद कहते हैं ,इसका निर्माण श्वान कोशिकाओं से होता है, इसके बाहर की तरफ तंत्रिकाछद नामक आवरण पाया जाता है। मज्जा आच्छाद में स्थान संकीर्णन पाए जाते हैं जिन्हें रेन्वियर की पर्व सन्धियाँ कहते हैं ,दो पर्व संधियों के बीच वाले भाग को पर्व कहते हैं। तंत्रिकाक्ष से उत्पन्न हुई पा२र्व शाख

प्राणियो मे उतक (भाग2)

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पिछले भाग में हमने कुछ उतको का अध्ययन किया था। अब इससे आगे भाग 1 - उतक उतक संयोजी उत्तक- यह उत्तक अनेक उतकों को परस्पर जोड़ने में अंगों को सहारा प्रदान करने में, तथा अंगों में ऊतकों के मध्य रिक्त स्थान भरने में प्रयुक्त होता है।  इसमें कोशिकाएं दूर दूर स्थित होती है वे उनके मध्य भारी मात्रा में मेट्रिक्स नामक अंन्तरकोशिक पदार्थ पाया जाता है । संयोजी ऊतकों का तीन भागों में अध्ययन किया जाता है - (1)-लचीले संयोजी उत्तक (2)-सघन संयोजी उत्तक (3)-विशिष्टकृत संयोजी उत्तक  उतक उतक उतक लचीले संयोजी उत्तक - ऐसे ऊतकों का आधारभूत पदार्थ मेट्रिक्स तरल या अर्ध तरल होता है - यह उत्तक दो प्रकार के होते हैं- (अ)-अंतराली संयोजी उत्तक (ब)-वसीय संयोजी उत्तक अंतराली संयोजी उत्तक - यह उत्तक सभी अंगों के चारों और पाया जाता है । यह  पारदर्शक चिपचिपे मेट्रिक्स वाला होता है यह उत्तर झिल्ली के सामान आवरण बनाता है। यह अमीबीय कोशिकाओं के विचरण हिलने ड्डलने पदार्थों के विसरण के लिए यह उत्तक अति महत्वपूर्ण है । अंतराली संयोजी उत्तक में दो प्रकार के तंतु पाए जाते हैं - - श्वेत कोलेजन

प्राणी उत्तक

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तो नमस्कार दोस्तों कैसे हैं आप लोग आज हम प्राणी ऊतकों के बारे में चर्चा करेंगे ,मैं आपको सरल भाषा में बताने का प्रयत्न करूंगा, ताकि आपको आसानी से समझ आ सके तो चलिए शुरू करते हैं| उत्तक  रचना व कार्यिकी में एकसमान कोशिकाओं के समूह को उत्तक कहते हैं। विज्ञान की जिस शाखा में उतको का अध्ययन किया जाता है उसे  औतिकी या histology  कहते हैं। उत्तक शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम बाइकाट ने किया।  कोशिका की संरचना व कार्य के आधार पर प्राणी उत्तक को चार प्रकारों  मे विभक्त किया गया है। उपकला उतक संयोजी उत्तक पेशीय ऊतक तंत्रिकीय उत्तक उतक- (1)- उपकला उत्तक (Epithelial tissue) उपकला उत्तक को आवरक उत्तक भी कहते हैं ,अर्थात य शरीर या किसी अंग की बाह्य सतह को आवरित करती है, इसकी कोशिकाएं परस्पर गहरे संपर्क में रहती है ।यह उत्तक मुख्यतः अवशोषण परिवहन संवेदना ग्रहण सुरक्षा उत्सर्जन आदि का कार्य करती है । उपकला उत्तको को मुख्यतः चार भागों में विभाजित किया जा सकता है। उतक (अ)  सरल या साधारण उपकला - उपकला में यदि कोशिकाओं की एक परत पाई जाती है तो उसे साधारण उपकला कहते हैं। यह चार प्रका

लाइसोसोम

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  लाइसोसोम  - लाइसोसोम को कोशिका की आत्मघाती थैली भी कहा जाता है Iइसकी खोज सीडी डूवे ने 1964 में की ।लाइसोसोम अधिकतर जंतुओं में पाया जाता है , पादपों में इसकी उपस्थिति कम पाई जाती है ।यह 0.4-0.8u व्यास की गोल या अंडाकार  संरचनाएं होती है ,इनके भीतर तरल भरा होता है ,इस तरल में वसा शर्करा प्रोटीन एवं न्यूक्लिक अम्ल आदि के पाचन व अपघटन गठन हेतु 40 प्रकार के एंजाइम ( हाइड्रोलेज लाइपेज प्रोटीऐज कार्बोहाइड्रेज फास्फेटेज कैथपसीन आदि) ,इन सभी एंजाइम को क्रिया करने के लिए अम्लीय माध्यम की आवश्यकता होती है ।लाइसोसोम कोशिका में उपस्थित समस्त पदार्थों का पाचन करने में सक्षम होता है ।लाइसोसोम में उपस्थित एंजाइम झिल्ली के फटने पर ही कार्य करते हैं झिल्ली के फटने पर कोशिका की विभिन्न संरचनाओं का पाचन या अपघटन कर देते हैं , इसी कारण इसे कोशिका की आत्मघाती थैलीया कहते हैं। लाइसोसोम के प्रकार - यह बहुरूपी कोशिकांग है ,यह एक ही प्रकार की कोशिकाओं में अलग-अलग समय पर अलग अलग प्रकार का पाया जाता है। प्राथमिक लाइसोसोम - नवनिर्मित लाइसोसोम को प्राथमिक लाइसोसोम कहते हैं। इसका निर्माण गॉल्जीकाय

मानव मस्तिष्क

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मस्तिष्क   -हमारे शरीर का महत्वपूर्ण अंग है ।यह संपूर्ण शरीर की क्रिया विधियों का नियंत्रण करता है। हमारे शरीर में होने वाली सभी क्रियाएं मस्तिष्क द्वारा संचालित होती है। हमें भूख ,प्यास ,परिवहन, हमारे फेफड़े ,हृदय, वृक्क ,बोलना ,सुनना ,यादाश्त, भावनाएं, विचार, हमारे द्वारा किया जाने वाला दैनिक जीवन में व्यवहार संपूर्ण  गतिविधियां मस्तिष्क संपन्न करता है। मस्तिष्क कठोर आवरण द्वारा घिरा होता है जिसे हम खोपड़ी कहते हैं, यह इस को सुरक्षा प्रदान करने का कार्य करती है, क्योंकि मस्तिष्क में उपस्थित सभी कोशिकाएं उत्तक आदि सभी अति संवेदनशील होते हैं I मस्तिष्क की बाहरी परत ड्यूरा मैटर, मध्य परत एरेक्नॉइड, यह बहुत ही पतली होती है Iऔर सब से आंतरिक परत पाया मैटर जो उतको के संपर्क में होती है। मस्तिष्क को मुख्यतः तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है। अग्र मस्तिष्क मध्य मस्तिष्क पश्च मस्तिष्क मस्तिष्क मस्तिष्क अग्र मस्तिष्क - अगर मस्तिष्क सेरीब्रम और हाइपोथैलेमस का बना होता है ।सेरीब्रम मानव मस्तिष्क का एक बड़ा भाग का निर्माण करता है। अग्र मस्तिष्क लैंगिक व्यवहार म

राइबोसोम्स

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राइबोसोम -  की खोज रॉबिन्सन व ब्राउन(1953) ने पादप सेम की जड़ की कोशिकाओं 'एवं पैलेड(1955) ने राइबोसोम की खोज प्राणी कोशिकाओं में की। राइबोसोम्स प्राणी व पादप कोशिकाओं में सर्वाधिक रूप से पाए जाते हैं। यह यूकैरियोटिक वे प्रोकरयोटिक दोनों कोशिकाओं में पाया जाते हैं ।यह कोशिकांग झिल्ली रहित होते हैं इनका संबंध प्रोटीन संश्लेषण होता है । राइबोसोमस राइबोन्यूक्लिओप्रोटीन से बने सूक्ष्म कण है 'जो कोशिकाद्रव्य मे मुक्त रूप से वितरित अन्तर्द्रव्यी कला से अथवा केंद्र कला से संलग्न अवस्था मेें पाए पाए जाते हैं ।यह RNA वे प्रोटीन से बने कण माइटोकांड्रियल मध्यान्श तथा हरित लवक में भी पाए जाते हैं I यूकैरियोटिक कोशिकाओ में राइबोसोम जटिल विधि से केंद्रिक में संश्लेषित होते हैं। राइबोसोम्स 150 से 200 A° व्यास के कण होते हैं प्रोकरयोट्स में यह जीवद्रव्य में मुक्त अवस्था में पाए जाते हैं ।यूकैरियोटिक में राइबोसोम्स दो प्रकार के पाए जाते हैं (1)कोशिकाद्रव्यी           (2) कोशिकांगी इनकी संख्या प्रति कोशिका में सामान्यतः जीवाणुओं में 10000 से 15000 तथा आंत्र में पाए जाने वाले

विषाणु(virus)

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 वायरस- Martinus Beijerinck ने सर्वप्रथम वायरस शब्द दिया था वायरस शब्द लैटिन भाषा से लिया गया है जिसका अर्थ होता है सरल विष I यह सजीवों व निर्जीव के मध्य की संयोजक कड़ी है, क्योंकि यह सजीव के संपर्क में आने पर सजीव की भांति व्यवहार करता है तथा निर्जीव के संपर्क में रहने पर यह निर्जीव की भांति व्यवहार करता है ।इसमें केंद्रक कोशिका द्रव्य प्लाज्मा झिल्ली नहीं पाई जाती। यह  श्वसन करने में भी असमर्थ होते है। यह सजीव की कोशिका में परजीवी के रूप में रहकर वृद्धि व जनन क्रिया कर सकते हैं ।जब यह किसी पोषक कोशिका को संक्रमित कर लेते हैं , तो उसके कच्चे माल व उपापचयी तत्वों को अपने लिए उपयोग में लाते हैं , यह अपना स्वतंत्र स्थायित्व बनाए रखने में सक्षम होता है। ••••विज्ञान की वह शाखा जिसके अंतर्गत विचारों का अध्ययन किया जाता है विषाणु विज्ञान( वायरोलॉजी) कहते हैं। कुछ वायरस के चित्र स्टेन्ले ने विषाणु को शुद्ध क्रिस्टलाइन अवस्था में प्राप्त किया इस कार्य हेतु उन्हें नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया। विषाणु का आमाप 100 A° से 3000 A° होता है अर्थात यह जीवाणुओं से छोटे होते है

जीवाणु

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जीवाणु -- जीवाणुओं के अन्य प्रचलित नाम जैसे माइक्रोब्स माइक्रोऑर्गेनिज्म वह germs, है ।किंतु सर्वाधिक प्रचलित एवं सर्वमान्य वैज्ञानिक नाम जीवाणु है ।यह शेवाल कवक तथा फफूंद तथा जंतु जगत के प्रोटोजोआ समुदाय के सदस्यों के साथ भी समानता प्रदर्शित करते हैं। जीवाणुओं को उद्विकास के क्रम में सबसे निम्न स्तर पर रखा गया है। जीवाणुओं के लक्षण - यह एक कोशिकीय होते हैं |इनमें जनन सरल अनुप्रस्थ विभाजन अर्थात   विखंडन  द्वारा होता है इनमें वास्तविक शाखाएं अनुपस्थित होती है ।जीवाणुओं में कोशिका भित्ति पाई जाती है इनमें केंद्रक झिल्ली एवं केंद्रिक नहीं पाई जाती ।अंत: प्रद्रव्यी जालिका,  माइटोकॉन्ड्रिया ,लाइसोसोम, गॉल्जीकाय, हरित लवक ,तारक काय ,आदि कोशिकांग नहीं पाए जाते। विभिन्न प्रकार के जीवाणुओं की संरचना-- जीवाणु वनस्पति सदृश्य लक्षण भी प्रदर्शित करते हैं lतो आइए उनके बारे में जानते हैं। - जीवाणुओं में कुछ विशिष्ट लक्षणों के कारण उन्हें पृथक एवं विशेष वर्ग में रखा गया है ।यह माइक्रोस्कोपिक है ।इनमें जनन सरल विखंडन विधि द्वारा होता है ।इनमें कोशिका भित्ति उपापचय की क्

मनुष्य में उत्पन्न होने वाले प्रमुख रोग व उसके कारक जीव

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प्रमुख जीवाणु जनित रोग, प्रभावित अंग: लक्षण तथा जीवाणु प्रमुख कवक जनित मानव रोग प्रमुख प्रोटोजोअन जन्य मानव रोग प्रमुख विषाणु जनित रोग प्रभावित अंग व लक्षण

माइटोकोंड्रिया( सूत्रकणिका)------- कोशिका का शक्ति गृह

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  माइटोकॉन्ड्रिया- सूत्र कणिका को जब तक विशेष रूप से अबे रंजीत नहीं किया जाता, तब तक इसी सूक्ष्मदर्शी द्वारा आसानी से नहीं देखा जा सकता, प्रत्येक  कोशिका मैं सूत्रकणिका की संख्या भिन्न होती है यह उसकी कार्य की सक्रियता पर निर्भर करती है, यह आकृति व आकार में भिन्न होती है यह तश्तरीनुमा बेलनाकार आकृति की होती है ,जो 1.0-4.1 माइक्रोमीटर लंबी व 0.2-1 माइक्रोमीटर( औसत 0.5 माइक्रोमीटर) व्यास की होती है lसूत्रकणिका एक दोहरी झिल्ली युक्त संरचना होती है ,जिसकी बाहरी झिल्ली वह भीतरी  झिल्ली इसकी अवकाशीका को दो स्पष्ट जलीय कक्षों बाह्य कक्ष व भीतरी कक्ष मैं विभाजित करती है ,भीतरी कक्ष को आधात्री या मैट्रिक्स कहते हैं ।बाह्यकला सूत्रकणिका की बाह्य सतत सीमा बनाती है ।इसकी अंतःझिल्ली के आधात्री की तरफ अंतरवलन बनाती है जिसे क्रिस्टी कहते हैं । क्रिस्टी इसके क्षेत्रफल को बढ़ाते हैं इसकी दोनों झिल्लीयो मे इनसे संबंधित विशेष एंजाइम मिलते हैं जो सूत्र कणिका के कार्य से संबंधित है ।सूत्रकणिका का वायवीय श्वसन से संबंध होता है I इनमें कोशिकीय ऊर्जा एटीपी के रूप में उत्पादित होती है। इस कारण से

कृत्रिम वृक्क ( अपोहन )

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उत्तरजीविता के लिए वृक्क जैव अंग है। कई कारक जैसे संक्रमण, आघात या वृक्क में सीमित रुधिर प्रवाह वृक्क की क्रियाशीलता को कम कर देते हैं ।यह शरीर में विषैले अपशिष्ट को संचित करता है ,जिससे मृत्यु भी हो सकती है। वृक्क के अपक्रिय होने की अवस्था में कृत्रिम वृक्क का उपयोग किया जाता है, एक कृत्रिम वृक्क नाइट्रोजनी अपशिष्ट उत्पादों को रुधिर से अपोहन( dialysis ) द्वारा निकालने की एक युक्ति है।- कृत्रिम वृक्क बहुत सी अर्ध पारगम्य आस्तर वाली नलिकाओं से युक्त होती है। ये नलिकाएँ अपोहन द्रव से भरी टंकी में लगी होती है ।इस द्रव का परासरण दाब रुधिर जैसा ही होता है लेकिन इसमें नाइट्रोजनी अपशिष्ट नहीं होते हैं। रोगी के रुधिर को इन नलिकाओं से प्रवाहित करते हैं। इस मार्ग में रुधिर से अपशिष्ट उत्पाद विसरण द्वारा अपोहन द्रव में आ जाते हैं। शुद्धिकृत रुधिर वापस रोगी के शरीर में पंपित कर दिया जाता है ।यह वृक्क के कार्य के समान हैं लेकिन एक अंतर है कि इसमें कोई पुनः अवशोषण नहीं है Iप्राय एक स्वस्थ वयस्क में प्रतिदिन 180 लीटर आरंभिक निस्यंद वृक्क मैं होता है ।य६पि 1 दिन में उत्सर्जित मूत्र का आयतन वास्तव

अलैंगिक जनन वह इसके प्रकार

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सभी जीव अपने वंशानुक्रम को बढ़ाने के लिए जनन करते हैं यह जनन दो प्रकार की विधियों से संपन्न होता है अलैंगिक जनन    2 .लैंगिक जनन तो इस लेख में हम अलैंगिक जनन के बारे में विस्तृत अध्ययन करेंगे अलैंगिक जनन  की विधियां---- विखंडन- एककोशिक जीवों जैसे जीवाणु तथा प्रोटोजोआ की कोशिका , कोशिका विभाजन द्वारा सामान्यतः दो बराबर भागों में विभक्त हो जाती हैं ।अमीबा जैसे जीवो में कोशिका विभाजन किसी भी तल से हो सकता है ,परंतु कुछ एक कोशिक जीवो में शारीरिक संरचना अधिक संगठित होती है उदाहरणतः कालाजार के रोगाणु, लेस्मनिया मैं कोशिका के एक सिरे पर कोड़े के समान सूक्ष्म सरचना  होते हैं ऐसे में विखंडन एक निर्धारित तल से होता है ।मलेरिया परजीवी प्लाज्मोडियम जैसे अन्य एककोशिक एक साथ अनेक संतति कोशिकाओं में विभाजित हो जाते हैं , जिसे बहुखंडन कहते हैं| खंडन-- सरल सरचना वाले बहुकोशिक जीवो में जनन की सरल विधि कार्य करती हैं ।उदाहरणतः स्पाइरोगाइरा सामान्यतः विकसित होकर छोटे-छोटे टुकड़ों में खंडित हो जाता है ,यह टुकड़े अथवा खंड वृद्धि करने जीव में विकसित हो जाते हैं, परंतु यह सभी बहुको

उत्सर्जन - सामान्य परिचय

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उत्सर्जन क्या है या किसे कहते हैं??? अनेक उपापचयी क्रियाओं में जनित नाइट्रोजन युक्त पदार्थों का शरीर से बाहर निकालना या वह जैव प्रक्रम जिसमें इन हानिकारक उपापचयी वर्ज्य पदार्थों का निष्कासन उत्सर्जन कहलाता है|-- मानव में उत्सर्जन-- मानव के उत्सर्जन तंत्र में एक जोड़ी वृक्क, एक मूत्र वाहिनी, एक मुत्राशय तथा एक मूत्र मार्ग होता है,| वृक्क मैं मूत्र बनने के बाद मूत्र वाहिनी मैं होता हुआ मुत्राशय मैं आ जाता है तथा यहां तब तक एकत्रित रहता है. जब तक मूत्र मार्ग से यह निकल नहीं जाता मूत्र किस प्रकार तैयार होता है??? मूत्र बनने का उद्देश्य रुधिर में से वर्ज्य पदार्थों को छानकर बाहर करना है | फुफ्फुस मे कार्बन डाइऑक्साइड   रुधिर से अलग हो जाती हैं ।जबकि नाइट्रोजनी वर्ज्य पदार्थ जैसे यूरिया या यूरिक अम्ल, वृक्क मेें अलग कर लिए जाते हैं, यह कोई आश्चर्य की बात नहीं की वृक्क की  आधारी एकक, फुफ्फुस की तरह ही बहुत पतली भिति वाली रुधिर केशिकाओ का गुच्छ होता है. वृक्क मे प्रत्येक केशिका गुच्छ एक नलिकाा के कप के आकार के सिरे के अंदर होताा है यह नलिका  छने हुए मुुत्र  को एकत्रित करती है ,प्रत्

मनुष्य में श्वसन

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 मनुष्य में श्वसन भोजन का पाचन होने के पश्चात उत्पादों को शरीर की प्रत्येक कोशिका तक पहुंचा दिया जाता है अब यहां पर इससे ऊर्जा प्राप्त की जाती हैं ऊर्जा प्राप्त करने के लिए ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है यह ऑक्सीजन ----- शरीर के अंदर नासा द्वार द्वारा जाती हैं नासा द्वार द्वारा जाने वाली वायु मार्ग में उपस्थित महीन वालों द्वारा निष्पंदित हो जाती है. जिससे शरीर में जाने वाली वायु धूल तथा दूसरी अशुद्धियों रहित होती है, इस मार्ग में श्लेष्मा की परत होती है जो इस प्रक्रम में सहायक होती है यहां से वायु कंठ द्वारा फुफ्फुस मैं प्रवाहित होती है कंठ में उपास्थि के वलय उपस्थित होते हैं यह सुनिश्चित करता है कि वायु मार्ग में निपतित ना हो|  मनुष्य में श्वसन फुफ्फुस के अंदर मार्ग छोटी और छोटी नलिकाओ में विभाजित हो जाता है जो अंत में गुब्बारे जैसी रचना में अंतकृत हो जाता है जिसे कूपिका कहते हैं .कूपिका एक सतह उपलब्ध कराती है जिससे गैसों का विनिमय हो सकता है कूपिकाओ की भित्ति मैं रुधिर वाहिका उनका विस्तीर्ण जाल होता है. जब हम श्वास अंदर लेते हैं हमारी पसलियां ऊपर उठती हैं और डायफ्राम