प्राणियो मे उतक (भाग2)
पिछले भाग में हमने कुछ उतको का अध्ययन किया था।
अब इससे आगे
भाग 1 - उतक
उतक
संयोजी उत्तक- यह उत्तक अनेक उतकों को परस्पर जोड़ने में अंगों को सहारा प्रदान करने में, तथा अंगों में ऊतकों के मध्य रिक्त स्थान भरने में प्रयुक्त होता है।
इसमें कोशिकाएं दूर दूर स्थित होती है वे उनके मध्य भारी मात्रा में मेट्रिक्स नामक अंन्तरकोशिक पदार्थ पाया जाता है ।
संयोजी ऊतकों का तीन भागों में अध्ययन किया जाता है -
(1)-लचीले संयोजी उत्तक
(2)-सघन संयोजी उत्तक
(3)-विशिष्टकृत संयोजी उत्तक
उतक |
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लचीले संयोजी उत्तक- ऐसे ऊतकों का आधारभूत पदार्थ मेट्रिक्स तरल या अर्ध तरल होता है -
यह उत्तक दो प्रकार के होते हैं-
(अ)-अंतराली संयोजी उत्तक
(ब)-वसीय संयोजी उत्तक
अंतराली संयोजी उत्तक- यह उत्तक सभी अंगों के चारों और पाया जाता है । यह पारदर्शक चिपचिपे मेट्रिक्स वाला होता है यह उत्तर झिल्ली के सामान आवरण बनाता है।
यह अमीबीय कोशिकाओं के विचरण हिलने ड्डलने पदार्थों के विसरण के लिए यह उत्तक अति महत्वपूर्ण है ।
अंतराली संयोजी उत्तक में दो प्रकार के तंतु पाए जाते हैं -
- श्वेत कोलेजन तंतु
-पीले इलास्टिन तंतु
मेट्रिक्स में कई प्रकार की कोशिकाएं पाई जाती है
(1)- हिस्टियोसाइटस- यह कोशिकाएं आकार में बड़ी और जीवाणुओं का भक्षण करती है।
(2)-मास्ट कोशिकाएं- यह कोशिकाएं हिपेरिन वे हिस्टेमिन जैसे पदार्थों का निर्माण करती है।
(3)-फाइब्रोब्लास्ट- यह कोशिकाएं जंतुओं के बीच दबी हुई वे चपटी होती है।
(4)-लिम्फाइड्स - यह कोशिकाएं लसिका जैसी होती है एवं रोग प्रतिकारक पदार्थों का संश्लेषण और संवहन करने का कार्य करती है।
वसीय संयोजी उतक-
यह उत्तक जंतुओं वे अधिकतर स्तनधारियों में त्वचा के नीचे पाया जाता है ।
यह इसके अतिरिक्त रुधिर वाहिनीयो व पीत अस्थि मजा के पास भी मिलता है ,
वसीय उत्तक वसा का भंडार होते हैं ,वसा उत्तक शरीर का 10 से 15 % भाग बनाते हैं। यह उत्तक अंगों को दबाव धक्कों खिंचाव आदि से बचाते हैं तथा ताप रोधक स्तरों का वे शरीर को आकृति देने का कार्य करते हैं।
(2)- सघन संयोजी उत्तक- इस उत्तक की कोशिकाएं मजबूती से व्यवस्थित होते हैं ।
सघन संयोजी उत्तक को दो भागों में विभाजित किया जाता है -
(1)- नियमित संयोजी उत्तक
(2)- अनियमित संयोजी उत्तक
(3)-विशिष्टकृत संयोजी उत्तक-
ये उत्तक तीन प्रकार के होते हैं
(1)-उपास्थि-
उपास्थि में अधात्री का निर्माण कॉण्ड्रिन नामक प्रोटीन द्वारा होता है, इनमें कोलेजन जंतु पाए जाते हैं इनके कारण ही उपास्थि में कड़ापन होता है।
उपास्थिया व्यस्क में -बाह्य कर्ण संधिया ,नाक की नोक ,मेरुदंड के आसपास की अस्थियां, वह हाथ पैर में पाई जाती हैं ।
(2)-अस्थि-
अस्थि मे मेट्रिक्स का निर्माण औसीन नामक प्रोटीन द्वारा होता है । इसमें कोलेजन तंतु तथा कैल्सियम वे मैग्निशियम भी पाए जाते हैं ,इन्हीं के कारण अस्थि कठोर वे दृढ़ होती है।
अस्थियों के कार्य-
जंतुओं के शरीर को दृढ़ता प्रदान करना।
पेशियों को जोड़ने के लिए आधार प्रदान करना ।
अस्थियों के अस्थि मजा में आरबीसी का निर्माण होता है।
शरीर की कोमल अंगों को सुरक्षा प्रदान करने का कार्य करती हैं।
श्रवण अंगों में स्थित कुछ छोटी हड्डियां सुनने में सहायता प्रदान करती हैं।
(3)-रक्त- रक्त भी एक प्रकार का तरल संयोजी उत्तक है जिसके द्वारा खाद्य पदार्थ ऑक्सीजन शरीर के सभी भागों में पहुंचाए जाते हैं। रुधिर में प्लाज्मा, लाल रुधिर कणिकाएं ,श्वेत रुधिर कणिकाएं ,पट्टीकाणु पाए जाते हैं।
पेशी उत्तक-
पेशी उत्तक पेशी कोशिका द्वारा बना होता है इसकी कोशिकाएं लंबी पतली होते हैं ,इसलिए इन्हें पेशी तंतु भी कहा जाता है
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पेशी उत्तक तीन प्रकार के होते हैं-
रेखित पेशियाँ-
इन्हें कंकाली पेशिया भी कहते हैं, क्योंकि अस्थियों से जुड़ी रहती हैं प्रत्येक रेखित पेशी कोशिका एक बहुकेंद्रकी व बेलनाकार कोशिका होती हैं जिसकी कोशिका कला को सार्कोलेमा एवं कोशिका द्रव्य को पेशी द्रव्य कहते हैं ।रेखित पेशियां का संकुचन तीव्र होता है परंतु संकुचन का नियंत्रण ऐच्छिक होता है, इसी कारण इन पेशियों को ऐच्छिक पेशियां भी कहते हैं।
चिकनी पेशियां-
इन पेशियों को अरेखित पेशियां भी कहते हैं। यह पेशियां अलग-अलग रहती हैं ।परंतु कुछ मे यह समूह में भी होती हैं। पेशियों में संकुचन धीमी गति से लंबे समय तक होता है ,इन पर हमारी इच्छा का नियंत्रण नहीं होने से इन्हें अनैच्छिक पेशियां भी कहते हैं ।इस प्रकार की पेशियां आंतरिक अंगों -मूत्राशय ,श्वास नली ,मूत्र वाहिनी ,रुधिर वाहिनीयो ,एवं आंत्र में पाई जाती हैं।
हृदय पेशियां-
ये पेशियां केवल पृष्ठवंशीयो के हृदय की भित्ति पर पाई जाती हैं। पेशी तंतु छोटे बेलनाकार एवं शकित होते हैं।
हृदय पेशीयो पर हमारा शक्ति नियंत्रण नहीं होता इस कारण यह अनैच्छिक पेशियां होते हैं।
हृदय की पेशियां अपने आप बिना रुके एक लेय से बराबर संकुचित होती रहती हैं इसी को हृदय की गति या धड़कन कहते हैं।