छत्रपति महाराज शिवाजी
परिचय -
मुगल साम्राज्य का विघटन होने से स्वतंत्र राज्यों का विभिन्न क्षेत्रों में उदय हुआ, उनमें राजनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण सशक्त राज्य 'मराठा राज्य' था, जिसकी स्थापना 'शिवाजी' ने की थी।
आजकल जिस प्रदेश को 'महाराष्ट्र' कहा जाता है, मध्य युग में उसमें पश्चिमी समुद्र तट का कोंकण प्रदेश, खानदेश तथा बरार का आधुनिक प्रदेश, नागपुर क्षेत्र, दक्षिण का कुछ हिस्सा तथा निजाम के राज्य का एक-तिहाई भाग था। यह भू-क्षेत्र मराठवाड़ा कहलाता था।
शिवाजी (1627-80 ई.)
शिवजी का जन्म 20 अप्रैल, 1627 ई. को पूना के निकट शिवनेर के दुर्ग में हुआ था। उनकी माता का नाम जीजाबाई था, जो देवगिरि के यादव वंश के जाधवराव की पुत्री थी।
उनके पिता शाहजी भोंसले पहले अहमदनगर एवं बाद में बीजापुर राज्य को सेवा में थे। शिवाजी बचपन में 'दादा कोणदेव' के संरक्षण में रहे और वे उनके शैक्षणिक गुरू थे। शिवाजी के आध्यात्मिक गुरु 'रामदास' थे।
उनको 12 वर्ष की आयु में अपने पिता से पूना में जागीर प्राप्त हुई। शिवाजी का प्रारम्भिक सैनिक अभियान बीजापुर के आदिलशाही राज्य के विरुद्ध शुरू हुआ।
1640-41 ई. में उनका विवाह सईबाई निंबालकर के साथ हुआ। उन्होंने अपने वंश की स्थिति को सुदृढ़ बनाने के लिए अनेक प्रसिद्ध वतनदारों के परिवारों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये जिनमें मुख्य थे- देशमुख, निलवालगर एवं मोरे।
शिवाजी द्वारा के गए प्रमुख युद्ध -
शिवाजी का प्रथम बार मुगलों से मुकाबला 1657 ई. में हुआ। 1659 ई. में उन्होंने बीजापुर के सरदार अफजल खाँ तथा 1663 ई. में पूना के एक युद्ध में मुगल सेनापति शाइस्ता खाँ को मार डाला।
जून, 1665 ई. में शिवाजी और मिर्जा राजा जयसिंह के बीच युद्ध हुआ, जिसमें शिवाजी पराजित हुए और उन दोनों के बीच 'पुरन्दर की संधि' हुई।
इस संधि के अनुसार शिवाजी ने अपने कुल 35 दुर्गों में से 23 दुर्ग मुगलों को सौंप दिए और शिवाजी के बड़े पुत्र शम्भाजी को मुगल दरबार में पाँच हजारी मनसबदार बनाया गया ।
मिर्जा राजा जयसिंह के कहने पर शिवाजी मई, 1666 ई. में मुगल दरबार में उपस्थित हुए, जहाँ उनका अपमान कर कैद कर लिया गया। लेकिन नवम्बर, 1666 ई. में ही वे अपने पुत्र शम्भाजी के साथ कैद से भाग निकले।
अतः विवश होकर औरंगजेब ने उन्हें मान्यता दे दी। तत्पश्चात् 1674 ई. में शिवाजी ने रायगढ़ के दुर्ग में महाराष्ट्र के स्वतंत्र शासक के रूप में अपना राज्याभिषेक करवाया एवं 'छत्रपति' की उपाधि धारण की।
12 अप्रैल, 1680 ई. में उनकी मृत्यु हो गई।
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