उत्परिवर्तन किसे कहते है। What is mutation। उत्परिवर्तन के प्रकार

उत्परिवर्तन

उत्परिवर्तन किसे कहते हैं? (What is Mutation)- सजीवों (केन्द्रक) में आनुवांशिक पदार्थ का वितरण व प्रतिकृति (Distribution and replication) इतनी विधिपूर्ण (Precise) है कि एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में आनुवांशिक सूचनायें प्रायः किसी भी परिवर्तन के बिना संचरित होती है, 

लेकिन कभी-कभी आनुवांशिक पदार्थ की प्रतिकृति व वितरण दोनों में दोष मिलते हैं, जो कि एक जीव के गुणों में अचानक वंशागत परिवर्तनों को उत्पन्न करते हैं। ऐसे परिवर्तनों को 'उत्परिवर्तन' कहते हैं। 

जो परिवर्तन जनक पीढ़ी से संतति पीढ़ी में प्रेषित होते हैं उन्हें वंशागत परिवर्तन कहते हैं। जो युग्म विकल्पी परिवर्तित लक्षण प्ररूप उत्पन्न करते हैं, उन्हें उत्परिवर्ती युग्मविकल्पी कहते हैं। दूसरे शब्दों में किसी जीव में अचानक उत्पन्न हुए वंशागत परिवर्तनों को उत्परिवर्तन कहते हैं।

(1) स्वतः उत्परिवर्तन

प्रकृति में किसी भी अस्पष्ट या अज्ञात कारण के उत्परिवर्तन होते रहते हैं, अर्थात् उन्हें किसी उत्परिवर्तजन (Mautagen) द्वारा उत्पन्न नहीं किया जाता है, ऐसे उत्परिवर्तनों को स्वतः उत्परिवर्तन कहते हैं। स्वतः उत्परिवर्तन के सम्भावित दो स्रोत हैं-

(a) DNA प्रतिकृति के दौरान त्रुटियों (Errors during DNA replication) का होना।

(b) जीवों के प्राकृतिक वातावरण में व्याप्त उत्परिवर्तजनी प्रभावों के कारण ।

स्वतः उत्परिवर्तनों में वातावरण का योगदान स्पष्टतः ज्ञात नहीं है या प्रदर्शित नहीं किया जा सकता है। लेकिन कुछ प्राकृतिक उत्परिवर्तजन कारक जैसे विद्युत धाराएँ (Electric currents) परमाणु कण (Atomic particles), किरणें (Rays) आदि इसके कारण हो सकते हैं। 

इनके अतिरिक्त निम्नलिखित कारण भी स्वतः उत्परिवर्तन कर सकते हैं-

(i) शरीरक्रियात्मक अवस्थाएँ (Physiological conditions): कई शरीरक्रियात्मक कारकों, विशेषकर जो काल प्रभाव (Ageing) से सम्बन्धित है, स्वतः उत्परिवर्तन के लिए जिम्मेदार हैं। जैसे बीज में आयु बढ़ने के साथ अंकुरण का कम होना, गुणसूत्रीय विपथन (Chromosomal aberrations) तथा उत्परिवर्तन बारम्बारता का बढ़ना आदि।

(ii) सौर विकिरण:- स्वतः उत्परिवर्तन का एक अन्य कारण सौर विकिरण (Solar radiations) भी है। सूर्य के प्रकाश में उपस्थित UV किरणें मुख्य रूप से उत्परिवर्तजनी (Mutagenic) होती हैं। इन किरणों का मानव के जिरोडर्मा वर्णकांग (Xeroderma pigmentation) उत्परिवर्तियों पर बड़ा ही नाटकीय प्रभाव पड़ता है। इन उत्परिवर्तियों (Mutants) में किरणों द्वारा प्रेरित DNA अणु की संरचना में परिवर्तनों को सुधारने वाले कुछ एन्जाइम अनुपस्थित होते हैं । अतः ऐसे व्यक्तियों की त्वचा पर जहाँ-जहाँ सूर्य का प्रकाश पड़ता है, वहाँ-वहाँ अर्बुद (Tumour) बन जाते हैं।

(iii) पोषण:- कुत्ता पुष्प (Antirrhinum) में सल्फर, फास्फोरस व नाइट्रोजन की कमी स्वतः उत्परिवर्तन क्षमता को बढ़ा देती है।

(iv) तापक्रमः- उच्च तापक्रम प्रकृति में उत्परिवर्तन को प्रेरित करते हैं। उदाहरणार्थ कम्पोजिटी के क्रेपिस (Crepis) में 50°C पर "उत्परिवर्तन दर असामान्य रूप से उच्च होती है। 

महत्त्व:- यूकेरियोट्स व प्रोकेरियोट्स के संजीनों (Genomes) के गतीय DNA खण्ड जिन्हें स्थलान्तरणशील तत्त्व कहते हैं, भी जीन उत्परिवर्तन करते हैं। स्वतः उत्परिवर्तनों की दर प्रकृति में बहुत कम पायी जाती है। 

फसलों की किस्में सुधारने में रूढ़ प्रजनन विधियों में उत्परिवर्तन आधार का काम करते हैं।

(2) प्रेरित उत्परिवर्तन (Induced Mutations)

भौतिक या रासायनिक कारकों के उपचार (Treatment) से उत्पन्न उत्परिवर्तनों को प्रेरित उत्परिवर्तन तथा इन कारकों को उत्परिवर्तजन (Mutagents) कहते हैं। कारकों की वह क्षमता जो उत्परिवर्तनों को प्रेरित करती है, उत्परिवर्तजनी गुण (Mutagenic Property) कहलाती है।

प्रेरित उत्परिवर्तन मनुष्य द्वारा क्रियान्वित होते हैं। इनको कृत्रिम तरीकों से प्रेरित किया जाता है। पादपों को उत्परिवर्तजनी कारकों के सामने अनावृत (Expose) कर या उपचार कर उनमें उत्परिवर्तन उत्पन्न कराये जाते हैं। इनकी आवृत्ति (Frequency) स्वतः उत्परिवर्तनों से काफी अधिक होती है। 

प्रेरित उत्परिवर्तनों को दो अलग-अलग तरीकों से उपयोग में लाया जाता है

  • जैवरासायनिक एवं आनुवांशिक अध्ययनों में।
  • फसलों को सुधारने में।
हमारे देश में प्रेरित–उत्परिवर्तन द्वारा प्राप्त कृष्य पौधों (cultivated plants) की विकसित किस्मों के कुछ प्रमुख उदाहरण -

कारक जो उत्परिवर्तनों को प्रेरित करने की क्षमता रखते हैं, उत्परिवर्तजन कहलाते हैं। इसे दो वर्गों में वर्गीकृत किया गया है-

भौतिक उत्परिवर्तजन - (Physical mutagenes) विभिन्न प्रकार के विकिरण (Radiations) उत्परिवर्तजनी गुण रखते हैं। इन्हें भौतिक उत्परिवर्तजन कहते हैं। ये विकिरण वैद्युत चुम्बकीय स्पेक्ट्रम के भाग हो सकते हैं जो कि दृश्य प्रकाश से कम तरंगदैर्ध्य तथा उच्च ऊर्जा वाले होते हैं, 

जैसे UV किरणें X- किरणें, गामा किरणें, कॉस्मिक किरणें, या कणवत किरणें जो कि रेडियो आइटोप्स, जैसे "C, H, SS, Co आदि के विघटन से उत्पन्न होते हैं। इन विकिरणों को दो वर्गों में रखा गया

(i) आयनकारी विकिरण (lonising radiation) - इन्हें आयनकारी विकिरण इसलिए कहा जाता है क्योंकि इनके मार्ग में उपस्थित परमाणुओं का ये आयनन कर देते हैं। परमाणुओं से इलेक्ट्रॉनों के उत्सर्जन को आयनन कहते हैं।

आयननकारी विकिरण दो प्रकार के होते हैं कणवत व अकणवत विकिरण 

कणवत विकिरण उच्च परमाणवीय ऊर्जा वाले कण हैं जो कि रेडियोऐक्टिव विघटन से उत्पन्न होते हैं, जैसे एल्फा किरणें, बीटा किरणें, तीव्र न्यूट्रोन्स व ऊष्मीय या धीमे न्यूट्रोन्स। 

अकणवत विकिरण जैसे, X- किरणें व गामा किरणें, जो उच्च ऊर्जा युक्त विकिरण है।

(ii) अआयनकारी विकिरण - पराबैंगनी किरणें (सौर विकिरण में उपस्थित रहते हैं या पारद वाष्पदीप से उत्पन्न किये जाते हैं) ही केवल अआयनकारी विकिरण है जो उत्परिवर्तजनी विशिष्टता रखती हैं। इनमें कम ऊर्जा व कम अन्तर्वेधन (Penetration) क्षमता होती है। ये सूक्ष्मजीवों (Microbes) में उत्परिवर्तन प्रेरित करने में अधिक सहायक होते हैं। इनकी तरंगदैर्ध्य 1000-3900 Å तक होती है तथा ये विशेषत: DNA में उपस्थित प्यूरीन्स व पिरिमिडीन्स द्वारा अवशोषित किये जाते हैं।

(B) रासायनिक उत्परिवर्तजन (Chemical mutagenes): विकिरणों के अतिरिक्त उत्परिवर्तनों के प्रेरण हेतु रासायनिक पदार्थों का भी उपयोग किया जाता है। सी. आरॅएरबैक (C. Auerback) नामक ब्रिटिश महिला वैज्ञानिक ने सर्वप्रथम पता लगाया था कि कुछ रसायनों द्वारा भी उत्परिवर्तन प्रेरित किये जा सकते हैं। इन रासायनिक उत्परिवर्तजनों को 5 वर्गों में विभक्त किया जा सकता है।

(i) क्षार अनुरूप (Base analogues ) :- क्षार अनुरूप सामान्यतः DNA में पाये जाने वाले क्षारों के समान होते हैं। ये प्रतिकृति के दौरान DNA में समावेशित हो जाते हैं। कुछ क्षार सदृशय पदार्थ हैं, 5 ब्रोमोयूरेसिल (5-BU), 5 क्लोरोयूसिल (5-CU), 5 आइडोयूरेसिल (5 Iodduracil, 5-IU), 2- एमीनोप्यूरीन (2-AP) एवं 2,6 डाइएमीनो प्यूरीन आदि। ये पदार्थ सामान्यतः ऐडेनीन के साथ युग्मन करते हैं और नये बने DNA रज्जु में थायमीन की जगह लेते हैं। ये चलावयवी विस्थापन (Tautomeric shift) द्वारा भी अन्य क्षारों से युग्मन कर सकते हैं।

(ii) एल्किलन कारक (Alkylating agents):- कई रसायनों में अभिक्रियाशील एल्केल जैसे मेथिल - CH, और ऐथिल - CH, वर्ग हाते. हैं। ये DNA के क्षारों तथा फॉस्फेट वर्गों को प्रतिस्थापित कर देते हैं। इन पदार्थों को एल्किलन कारक तथा इस क्रिया को एल्किलीकरण (Alkylation) कहते हैं। 

एल्किलीकरण क्रिया के द्वारा एक एल्केल मूलक DNA के एक अणु से हाइड्रोजन परमाणु को हटा देता है। एल्किलन कारक जैसे मस्टर्ड गैस, EMS, MMS, EES आदि विभिन्न प्रकार के आनुवांशिक प्रभावों को उत्पन्न करते हैं।

(iii) विऐमीनीकरण कारक (Deamination agents):- नाइट्रस अम्ल (Nitrous acid) एक शक्तिशाली उत्परिवर्तजन है जो प्रतिकृत व अप्रतिकृत दोनों DNA पर क्रिया करता है तथा क्षारों को ऑक्सीकृत कर इनमें से NH, को हटाता है। यह साइटोसीन (6-NH का हटाना), एडिनिन (-6NH का हटाना) तथा (2-NH का हटाना) का ऑक्सीकरण व विऐमीनीकरण करता है व इनके एमीनो वर्ग ( NH) कीटो (=O) वर्ग द्वारा हटाया जाता है। इससे क्रमशः यूरेसिल, हाइँपोजैन्थिन व जैन्थिन का उत्पाद होता है।

(iv) एक्रिडीन रंजक (Acrdine dyes):- एक्रिडीन जैसे 5 एमीनो एक्रिडीन, प्रोफ्लेविन, एक्रीफ्लैविन आदि दो प्यूरीन्स के मध्य में अन्तर्विष्ट (Intercalate) हो जाते हैं, जिसके परिणामस्वरूप उनके बीच की दूरी 3.0 से 6.8 A हो जाती है और DNA हो जाता है। अन्तर्विष्ट DNA द्विरज्जु की दृढ़ता को बढ़ा देता है, साथ ही इसके विन्यास को क्षुब्ध कर देता है।

(v) अन्य रासायनिक उत्परिवर्तजन (Other chemical mautagens):- कई अन्य रसायन भी उत्परिवर्तजन गुण दिखाते हैं लेकिन उनकी क्रियाविधि का पूरा ज्ञान नहीं है। 

हाइड्रोक्सिलऐमीन (Hydroxylamine, NH, OH) के बारे में ज्ञात हुआ है। यह साइटोसीन के एमीनो वर्ग का हाइड्रोक्सिऐमीनोसाइटोसीन उत्पन्न करता है। हाइड्रोक्सिलऐमीनोसाइटोसीन गुआनीन के स्थान पर एडिनिन से युग्मन करता है

वर्तमान में पोलीडिओक्सी- राइबोन्यूक्लिओटाइड प्राकृतिक रूप से विद्यमान स्थलान्तरणशील तत्त्वों व संश्लिष्ट ओलिगोन्यूक्लिओटाइड्स दोनों ही विशिष्ट प्रकार के उत्परिवर्तनों को प्रेरित करने में उपयोगी सिद्ध हुए हैं, जो विशेषकर प्रोकेरियोट्स तथा विलगन DNA में देखे गये हैं।

कृषि में महत्त्व प्रेरित उत्परिवर्तन की प्रक्रिया को प्रयुक्त कर पादप प्रजनन के अन्तर्गत गेहूँ की फसल में अनेक लाभदायक गुण जैसे- शाखित बालियाँ, दोनों में प्रोटीन एंव लाइसीन घटकों की बहुलता, बीज का रंग, इत्यादि प्राप्त किये गये हैं।

उत्परिवर्तन द्वारा विकसित सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण लक्षण अम्बर रंग के बीजों का हैं, जिसे निवेशित (Intruduce) करके गेहूँ की शरबती सोनारा (Sharbati Sonara) नामक किस्म का विकास किया गया है।

इसी प्रकार से उत्परिवर्तन के द्वारा धान की फसल (चावल) के. उत्पादन एवं गुणवत्ता में सुधार करना भी सम्भव हो सका है। उदाहरणार्थ, फसल चक्र (Crop cycle) की अवधि को घटाकर 60 दिनो का करना। 

दानों में प्रोटीन एवं लाइसीन की मात्रा में बढ़ोतरी एवं चावल की घटिया किस्म “जैपोनिका” से उन्नत किस्म “इन्डिका" का उत्पन्न होना है। जौ (Barley) की फसल में भी उत्परिवर्तन द्वारा सुधरी हुई किस्में प्राप्त की गई हैं 

जैसे RBP-1 व अनेक सब्जी उत्पादक पौधों जैसे टमाटर, लाल मिर्च एवं गोभी में उत्परिवर्तन प्रेरित कर बेहतर किस्में विकसित की गई हैं।


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