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जीवाणु

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जीवाणु -- जीवाणुओं के अन्य प्रचलित नाम जैसे माइक्रोब्स माइक्रोऑर्गेनिज्म वह germs, है ।किंतु सर्वाधिक प्रचलित एवं सर्वमान्य वैज्ञानिक नाम जीवाणु है ।यह शेवाल कवक तथा फफूंद तथा जंतु जगत के प्रोटोजोआ समुदाय के सदस्यों के साथ भी समानता प्रदर्शित करते हैं। जीवाणुओं को उद्विकास के क्रम में सबसे निम्न स्तर पर रखा गया है। जीवाणुओं के लक्षण - यह एक कोशिकीय होते हैं |इनमें जनन सरल अनुप्रस्थ विभाजन अर्थात   विखंडन  द्वारा होता है इनमें वास्तविक शाखाएं अनुपस्थित होती है ।जीवाणुओं में कोशिका भित्ति पाई जाती है इनमें केंद्रक झिल्ली एवं केंद्रिक नहीं पाई जाती ।अंत: प्रद्रव्यी जालिका,  माइटोकॉन्ड्रिया ,लाइसोसोम, गॉल्जीकाय, हरित लवक ,तारक काय ,आदि कोशिकांग नहीं पाए जाते। विभिन्न प्रकार के जीवाणुओं की संरचना-- जीवाणु वनस्पति सदृश्य लक्षण भी प्रदर्शित करते हैं lतो आइए उनके बारे में जानते हैं। - जीवाणुओं में कुछ विशिष्ट लक्षणों के कारण उन्हें पृथक एवं विशेष वर्ग में रखा गया है ।यह माइक्रोस्कोपिक है ।इनमें जनन सरल विखंडन विधि द्वारा होता है ।इनमें कोशिका भित्ति उपापचय की क्

मनुष्य में उत्पन्न होने वाले प्रमुख रोग व उसके कारक जीव

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प्रमुख जीवाणु जनित रोग, प्रभावित अंग: लक्षण तथा जीवाणु प्रमुख कवक जनित मानव रोग प्रमुख प्रोटोजोअन जन्य मानव रोग प्रमुख विषाणु जनित रोग प्रभावित अंग व लक्षण

माइटोकोंड्रिया( सूत्रकणिका)------- कोशिका का शक्ति गृह

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  माइटोकॉन्ड्रिया- सूत्र कणिका को जब तक विशेष रूप से अबे रंजीत नहीं किया जाता, तब तक इसी सूक्ष्मदर्शी द्वारा आसानी से नहीं देखा जा सकता, प्रत्येक  कोशिका मैं सूत्रकणिका की संख्या भिन्न होती है यह उसकी कार्य की सक्रियता पर निर्भर करती है, यह आकृति व आकार में भिन्न होती है यह तश्तरीनुमा बेलनाकार आकृति की होती है ,जो 1.0-4.1 माइक्रोमीटर लंबी व 0.2-1 माइक्रोमीटर( औसत 0.5 माइक्रोमीटर) व्यास की होती है lसूत्रकणिका एक दोहरी झिल्ली युक्त संरचना होती है ,जिसकी बाहरी झिल्ली वह भीतरी  झिल्ली इसकी अवकाशीका को दो स्पष्ट जलीय कक्षों बाह्य कक्ष व भीतरी कक्ष मैं विभाजित करती है ,भीतरी कक्ष को आधात्री या मैट्रिक्स कहते हैं ।बाह्यकला सूत्रकणिका की बाह्य सतत सीमा बनाती है ।इसकी अंतःझिल्ली के आधात्री की तरफ अंतरवलन बनाती है जिसे क्रिस्टी कहते हैं । क्रिस्टी इसके क्षेत्रफल को बढ़ाते हैं इसकी दोनों झिल्लीयो मे इनसे संबंधित विशेष एंजाइम मिलते हैं जो सूत्र कणिका के कार्य से संबंधित है ।सूत्रकणिका का वायवीय श्वसन से संबंध होता है I इनमें कोशिकीय ऊर्जा एटीपी के रूप में उत्पादित होती है। इस कारण से

कृत्रिम वृक्क ( अपोहन )

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उत्तरजीविता के लिए वृक्क जैव अंग है। कई कारक जैसे संक्रमण, आघात या वृक्क में सीमित रुधिर प्रवाह वृक्क की क्रियाशीलता को कम कर देते हैं ।यह शरीर में विषैले अपशिष्ट को संचित करता है ,जिससे मृत्यु भी हो सकती है। वृक्क के अपक्रिय होने की अवस्था में कृत्रिम वृक्क का उपयोग किया जाता है, एक कृत्रिम वृक्क नाइट्रोजनी अपशिष्ट उत्पादों को रुधिर से अपोहन( dialysis ) द्वारा निकालने की एक युक्ति है।- कृत्रिम वृक्क बहुत सी अर्ध पारगम्य आस्तर वाली नलिकाओं से युक्त होती है। ये नलिकाएँ अपोहन द्रव से भरी टंकी में लगी होती है ।इस द्रव का परासरण दाब रुधिर जैसा ही होता है लेकिन इसमें नाइट्रोजनी अपशिष्ट नहीं होते हैं। रोगी के रुधिर को इन नलिकाओं से प्रवाहित करते हैं। इस मार्ग में रुधिर से अपशिष्ट उत्पाद विसरण द्वारा अपोहन द्रव में आ जाते हैं। शुद्धिकृत रुधिर वापस रोगी के शरीर में पंपित कर दिया जाता है ।यह वृक्क के कार्य के समान हैं लेकिन एक अंतर है कि इसमें कोई पुनः अवशोषण नहीं है Iप्राय एक स्वस्थ वयस्क में प्रतिदिन 180 लीटर आरंभिक निस्यंद वृक्क मैं होता है ।य६पि 1 दिन में उत्सर्जित मूत्र का आयतन वास्तव

अलैंगिक जनन वह इसके प्रकार

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सभी जीव अपने वंशानुक्रम को बढ़ाने के लिए जनन करते हैं यह जनन दो प्रकार की विधियों से संपन्न होता है अलैंगिक जनन    2 .लैंगिक जनन तो इस लेख में हम अलैंगिक जनन के बारे में विस्तृत अध्ययन करेंगे अलैंगिक जनन  की विधियां---- विखंडन- एककोशिक जीवों जैसे जीवाणु तथा प्रोटोजोआ की कोशिका , कोशिका विभाजन द्वारा सामान्यतः दो बराबर भागों में विभक्त हो जाती हैं ।अमीबा जैसे जीवो में कोशिका विभाजन किसी भी तल से हो सकता है ,परंतु कुछ एक कोशिक जीवो में शारीरिक संरचना अधिक संगठित होती है उदाहरणतः कालाजार के रोगाणु, लेस्मनिया मैं कोशिका के एक सिरे पर कोड़े के समान सूक्ष्म सरचना  होते हैं ऐसे में विखंडन एक निर्धारित तल से होता है ।मलेरिया परजीवी प्लाज्मोडियम जैसे अन्य एककोशिक एक साथ अनेक संतति कोशिकाओं में विभाजित हो जाते हैं , जिसे बहुखंडन कहते हैं| खंडन-- सरल सरचना वाले बहुकोशिक जीवो में जनन की सरल विधि कार्य करती हैं ।उदाहरणतः स्पाइरोगाइरा सामान्यतः विकसित होकर छोटे-छोटे टुकड़ों में खंडित हो जाता है ,यह टुकड़े अथवा खंड वृद्धि करने जीव में विकसित हो जाते हैं, परंतु यह सभी बहुको

उत्सर्जन - सामान्य परिचय

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उत्सर्जन क्या है या किसे कहते हैं??? अनेक उपापचयी क्रियाओं में जनित नाइट्रोजन युक्त पदार्थों का शरीर से बाहर निकालना या वह जैव प्रक्रम जिसमें इन हानिकारक उपापचयी वर्ज्य पदार्थों का निष्कासन उत्सर्जन कहलाता है|-- मानव में उत्सर्जन-- मानव के उत्सर्जन तंत्र में एक जोड़ी वृक्क, एक मूत्र वाहिनी, एक मुत्राशय तथा एक मूत्र मार्ग होता है,| वृक्क मैं मूत्र बनने के बाद मूत्र वाहिनी मैं होता हुआ मुत्राशय मैं आ जाता है तथा यहां तब तक एकत्रित रहता है. जब तक मूत्र मार्ग से यह निकल नहीं जाता मूत्र किस प्रकार तैयार होता है??? मूत्र बनने का उद्देश्य रुधिर में से वर्ज्य पदार्थों को छानकर बाहर करना है | फुफ्फुस मे कार्बन डाइऑक्साइड   रुधिर से अलग हो जाती हैं ।जबकि नाइट्रोजनी वर्ज्य पदार्थ जैसे यूरिया या यूरिक अम्ल, वृक्क मेें अलग कर लिए जाते हैं, यह कोई आश्चर्य की बात नहीं की वृक्क की  आधारी एकक, फुफ्फुस की तरह ही बहुत पतली भिति वाली रुधिर केशिकाओ का गुच्छ होता है. वृक्क मे प्रत्येक केशिका गुच्छ एक नलिकाा के कप के आकार के सिरे के अंदर होताा है यह नलिका  छने हुए मुुत्र  को एकत्रित करती है ,प्रत्

मनुष्य में श्वसन

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 मनुष्य में श्वसन भोजन का पाचन होने के पश्चात उत्पादों को शरीर की प्रत्येक कोशिका तक पहुंचा दिया जाता है अब यहां पर इससे ऊर्जा प्राप्त की जाती हैं ऊर्जा प्राप्त करने के लिए ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है यह ऑक्सीजन ----- शरीर के अंदर नासा द्वार द्वारा जाती हैं नासा द्वार द्वारा जाने वाली वायु मार्ग में उपस्थित महीन वालों द्वारा निष्पंदित हो जाती है. जिससे शरीर में जाने वाली वायु धूल तथा दूसरी अशुद्धियों रहित होती है, इस मार्ग में श्लेष्मा की परत होती है जो इस प्रक्रम में सहायक होती है यहां से वायु कंठ द्वारा फुफ्फुस मैं प्रवाहित होती है कंठ में उपास्थि के वलय उपस्थित होते हैं यह सुनिश्चित करता है कि वायु मार्ग में निपतित ना हो|  मनुष्य में श्वसन फुफ्फुस के अंदर मार्ग छोटी और छोटी नलिकाओ में विभाजित हो जाता है जो अंत में गुब्बारे जैसी रचना में अंतकृत हो जाता है जिसे कूपिका कहते हैं .कूपिका एक सतह उपलब्ध कराती है जिससे गैसों का विनिमय हो सकता है कूपिकाओ की भित्ति मैं रुधिर वाहिका उनका विस्तीर्ण जाल होता है. जब हम श्वास अंदर लेते हैं हमारी पसलियां ऊपर उठती हैं और डायफ्राम